Sankshipt
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ISBN 9788193463369
- टाईटल : संक्षिप्त
- Title : Sankshipt
- Author : Harsh Ranjan
- Publisher : Author’s Ink Publications (23 September 2018)
- Language : Hindi
- Print length : 300 pages almost
- Story Collection of 10 Stories
- Versions : E-Book and Paperback
- Paperback available on Amazon and Flipkart
- Fiction
Description
चेहरे से उद्धृत
गुंजन ने प्रभात को बुलाया था। दोनों बातें एक साथ हुई। हस्पताल में मंजू पड़ी थी और प्रभात वहाँ से निकल पड़ा। इतने दिनों बाद गुंजन…उसे लगा था कि वो अब नहीं आयेगी। उसके सामने थे उसके फलैट के वही रास्ते! वही मोड़। गुंजन ने उसे देखकर आँखें बंद कर ली थी! ऐसा लगा जैसे डर गयी हो। वह खुद भी पहचान में नहीं आ रही थी। इन कमरों में उसे हमेशा लाल कपड़ों में देखा जाता था! माथे पर सिंदूर और हाथों में ढेर सारी चूड़ियाँ पर आज…ऐसा लग रहा है जैसे कि कोई सन्यासिन…
-वो तो मैं बनना चाहती थी और बार-बार मैंने आपको भी उसी तरह बदलने की कोशिश की पर मुझे ही झुकना पड़ा।
प्रभात ने कमरे में एक शक्ति की अनुभूति की जो संभवतः उसकी ही थी और कमरे का माहौल हर बार से बिल्कुल बदला हुआ था। ये कमरा उसकी बाहरी जिन्दगी के उन क्षणों का प्रतिबिम्ब होता था जो कि वो आपने साथ गुजरती थी।
गुंजन की आँखों की चमक अलग थी और उसमें एक सादापन नजर आ रहा था जो कि उसमें कभी नहीं देखा गया था।
वह कह नहीं पायी पर उसकी आँखों में वो शक्ति जैसे कि उभरी हो। वह प्रभात के उस दूसरे चेहरे से वह उसका शरीर माँग रही थी।
गुंजन को मंजू के बारे में पता था। … मंजू! … उसका दर्द … उसकी गोद में अब एक छोटा सा बच्चा था! बहुत प्यारा बच्चा … उसकी आँखें …….उसकी नाक …. उसका मुँह…. उसका चेहरा ……. चेहरा!
प्रभात ने उस दूसरे चेहरे को ढूंढ़ा पर शायद उस बच्चे ने उसकी गोद में आने के बाद चुपके से उसे उतार लिया था।
प्रभात ने उस बच्चे को उतारकर वापस मंजू की गोद में दे दिया। मंजू की आँखों में खुशी थी। उसका चेहरा प्रभात को गुंजन के चेहरे से मिलता लग रहा था! जिसे वह अभी-अभी देखकर यहाँ आया है।
वहाँ गुंजन भी मुस्करा रही थी और यहाँ मंजू भी। प्रभात के पास जैसे कि अब कोई भी चेहरा नहीं बचा था। उस बच्चे ने उसके सिर पर से एक भारी बोझ उतार दिया। वह चुपचाप बाहर चला गया।
उसे काफी दिनों बाद उस शरीर को देखने का मौका मिला था जिसके दर्द को वह बहुत दिनों से केवल अनुभव ही कर पा रहा था।
उसने अपने आप को टटोला! लगा कि उसके दोनों चेहरों के बाद अब यहाँ केवल घाव थे। हर एक से पस और खून रिस रहा था।
उसकी कूबड़ी परछाई ने उसका पीछा करना छोड़ दिया था और उसका मन खुद उसे हल्का लग रहा था। उसे लगा कि जैसे अब कोई उलझन नहीं! कोई काम नहीं ….
उसने अपनी धीरे – धीरे थमती हुई नसें टटोली …… आस-पास गुजर रहे लोग जैसे हल्के – फुल्के ;अपने अपने हिसाब से चेहरे उसे पहनाते रहे और वो अपने घायल! थके बीमार शरीर को समेटकर चुपचाप सड़क के एक किनारे पर बैठ गया।
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