एक आग का दरिया
ये मेरी पहली प्रकाशित पुस्तक है, जो पेपर-बॅक के रूप में प्रकाशित हुई थी। ये कहानी-संग्रह प्रारम्भिक कहानियों का संग्रह न होकर, लेखक के अनुभूतियों की उपज का प्रारम्भिक माहौल है! यहाँ ही एक लेखक का जन्म हुआ था जो दीर्घायु था, नित-नित जिसने जीवन के कठिन प्लेटफॉर्म पार किए। बड़ी कोमल भावना को मैंने बहुत कठिन सा नाम दे दिया, एक आग का दरिया! हो सकता है कि कोई बड़ा तैराक कहे कि ये चौदह फुट का दरिया है ही क्या! लेकिन याद रखिए कि एक बीज हमेशा हजारों साल जीने वाले, अन्तरिक्ष से पाताल तक खुद को फैलाये पेड़ से बड़ा होता है क्योंकि उसे उसने ही जन्म दिया है! आदमी कभी भी अपने जनक से बड़ा नहीं हो सकता! एक बड़े वृक्ष के बालकपन की ये छवि आपको बहुत खूबसूरत लगेगी। आज यहाँ, इस पेड़ के डाल में अनगिनत फल लगे हैं पर ये आज भी उस छोटे से बीज के छोटे से सौभाग्य को अपनी रगों में रखता है।
सावन की एक साँझ
ये मेरी दूसरी प्राकाशित पुस्तक है। ये एक कहानी संग्रह है। इसमें कुल दस कहानियाँ संकलित हैं। अपने कमरे से बाहर निकलकर, बाहरी दुनिया देखने के क्रम में उसमें संघर्ष की अनिवार्यता एक लेखक के जीवन का सबसे करुण पक्ष है। उसके भीतर की नरम जमीन को जब बाहरी दुनिया की सतहें मिलती हैं तब वो समझता है कि कलम का दुख क्या है! वो हर संघर्ष को, हर दुख को, हर विचित्रता को स्वीकारता जाता है। लिखना, जीना, जीते हुए लिखना कितना कठिन, कितना आसान है, उसे हर बात की टेर हो रही है पर ज़िंदगी अपनी ऐसी गूढ सच्चइयों के दर्शन इतनी आसानी से नहीं करने देती, ये पुस्तक उसी दौर की कहानियाँ संकलित किए हुए है।
संक्षिप्त
ये मेरा तीसरा कहानी संग्रह है। ये कहानियाँ, कहानियाँ कम थीं और उपन्यास ज्यादा। कईयों ने मुझसे ये सवाल किया था कि शीर्षक ‘संक्षिप्त’ का मतलब क्या है? इसी का मतलब है कि कहानियों को मैंने बस उतना ही कहा है कि जितना उसका सार प्रकट कर सकें। प्रकाशक के मना करने पर भी मैंने ये खुले तौर पर कहा था कि इन सारी कहानियों का प्लॉट असल में उपन्यासों का प्लॉट है और ये सारे उपन्यास जल्दी ही आपको पढ़ने मिलेंगे। अब तो लोगों का रोमांच और जिज्ञासा खत्म हो जाएगी! खैर, फिर भी इनपर आधारित कुछ उपन्यास भी आ रहे हैं एक-एक करके। एक पूरे अंतराल की कहानी समेटे हुए ये किताब किसी भी लेखक की एक यादगार किताब होनी थी, क्योंकि इतना मेहनत ही लिया था इसने! कुछ बेहद गंभीर कहानियाँ इसमें संकलित हैं, जिन्हें आप खुद चिन्हित कर लीजिएगा।
ज़िंदगी ज़ीरो माईल
ये कहानी संग्रह मेरा चौथा कहानी संग्रह रहा है। कुछ जबर्दस्त कहानियों को अपने आंचल में समेटे ये कहानी संग्रह चुपचाप किंडल के एलेक्ट्रोनिक जंगल में अपनी जगह बना गया। मैंने जब ये संग्रह तैयार किया था तो मुझे लगा था कि बस मैं पन्ने नत्थी कर रहा हूँ पर मेरी ज़िंदगी के ये क्षण, ये अंतराल विशेष ऐसे सकारात्मक और शुभ होंगे, ये मैंने नहीं सोचा था। ये प्रकाशित हुआ और मुझे लगा कि एक अथक, अनंत तक की यात्रा शुरू हो गयी है, जिसमें कदम-कदम पर पर्वत हैं, खाइयाँ है और बेहद बेदर्द हवाएँ और प्रलोभन की पूंछ पकड़े आती रुसवाइयां हैं। मेरे पास सिर्फ एक संग्रह बचा था तब जिसे मुझे अगली जिल्द में नाथना था। मैं एक ऐसी रेस में काफी आगे दौड़ आया था जहां सिर्फ एक कदम भर सामने की धरती दिखती है और दूर-दूर तक हवाओं में धुंध ही धुंध टिकती है।
दौर था, गुजर गया (फेसबुक पर एक रात)
ये मेरी बची कहानियों का संग्रह था जो मैंने आज तक लिख रखी थीं। इसके बाद मैंने छोटी कहानियाँ लिखना बंद कर दिया था, कम से कम तब तक जब तक कि मेरे कुछ पूरे उपन्यास न निकल आयें। ये कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ हार्ड-कवर के रूप में और प्रकाशक के सुझाव से मैंने इस वर्जन का नाम इसकी एक कहानी, ‘फेसबुक पर एक रात’ रखा। इस संग्रह के साथ मैंने अपनी पचास कहानियाँ पूरी की थीं। ये सारी बिलकुल हल्की-फुलकी कहानियाँ हैं जिन्हें पढ़कर आपको कुछ दूसरे-तीसरे स्तर की बातें नहीं सोचनी। पढ़िये और मुस्कुराइए। असल में इस कहानी-संग्रह के साथ मैंने छोटी कहानियों से एक अवकाश लिया कुछ सालों का और ठीक अवकाश से पहले के ये क्षण मुझे गुदगुदाते हैं आज भी। इसका हार्ड-कवर वर्जन खूब बिका है और इसकी ई-बुक भी बहुत पढ़ी गयी है! एक दौर, इसके पन्नों की पलटन के साथ विराम लेता है और मैंने इसके बाद दूसरे क्षितिज की तरफ देखना शुरू किया।
आधी-अधूरी साधनाएं : प्रारम्भ
जीवन में जाने-अंजाने हम कई साधनाएं करते हैं, इनमें से कुछ पूर्ण होती हैं और कुछ अन्य कारणों से अधूरी छूट जाती हैं। एक साधारण सी ज़िंदगी को करीब से देखने के बाद जो साधनाएं मैंने पायी, उसका उल्लेख मैंने इस किताब में किया है। बहुत से सपने, बहुत से अरमान लेकर चले एक लड़के की आयु कैसे और किन रस्तों से पार होती है और कैसे आगे बढ़ती है उसका एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है। कई बार बलिदान करने पड़ते हैं, कई बार सपनों से मुख मोड़ना पड़ता है, कई बार खुद को समझाना होता है और कई बार रूठे हुए दिल को पीछे छोडकर भी आगे बढ़ जाना होता है।
आधी-अधूरी साधनाएं : इति
आधी-अधूरी साधनाएं पुस्तक शृंखला की ये दूसरी और आखिरी किताब है। इसमें कर्तव्यों के जीतने और सपनों के हारने का एक मार्मिक चित्र उकेरा गया है। अक्सर हम सपनों को यही लांछन देते हैं कि दिन में काम करने की जगह अगर हम उन्हें देखते हैं तो यूं ही सपने हानिकारक हो जाते हैं। सपनों के पीछे कोई ज़िंदगी की सच्चाई नहीं त्याग देता है और यहाँ पुस्तक में भी ऐसा ही हुआ है। जब सपनों तक पहुँचने का रास्ता न मिले और कर्तव्य पैर जकड़ लें तो फिर किस तरह एक सालों से की जा रही साधना अधूरी रह जाती है, खंडित हो जाती है, ये इस पुस्तक में जरूर पढ़िये।
परछाइयों के पीछे : प्रारम्भ
ये मेरा औपन्यासिक क्षेत्र में पहला और सबसे महान प्रयास रहा है। ये उपन्यास मेरे दिमाग में ही एक समुद्र से महा-समुद्र बन गया है। मैं इसके जितने हिस्से लेकर चला था, अब संभवतः ये उससे कई हिस्से जाएगा। कहानी का ये हिस्सा, एक ऐसी जगह से शुरू हुआ है, जहां तक अभी बहुत कुछ हो चुका है! पर अभी बहुत कुछ होना बचा भी है! धीरे-धीरे प्लॉट सेट करती हुई ये कहानी, वहाँ अंत करती है जहां एक सन्नाटा है, एक थकावट है और एक आशंका है। ये कहानी मेरे जीवन का पहला काल-खंड बिलकुल सटीकता से व्यक्त करती है, मतलब मेरी लेखन शैली, मेरे विचार, मेरे संस्कार, मेरी कहानी के प्लॉट को समझने के आधार और मेरे शब्दों और वाक्यों के हथियार। मैंने इस उपन्यास का पेपर-बॅक संस्करण एक साथ दो हिस्सों का निकाला था और दोनों एक साथ ऑनलाईन साईट्स पर लिस्ट हुई थी। एक यात्रा जो इस ठौर से प्रारम्भ हुई थी वो चलती हुई विस्तार पाती है।
परछाइयों के पीछे : विस्तार
जैसे वृक्ष फैलते हैं उसी तरह प्रारम्भ इस भाग में फैल गया है! कहानी का बहाव और भाव प्रबल होते गए हैं, सूत्र उलझते गए हैं। घटनाओं के चक्रव्युह में फंसे-फंसे हम एक ऐसे परिणाम पर पात्रों को खड़ा पाते हैं जहां या तो आप मान लें कि रास्ते बंद हैं या नए सफर के लिए तैयार रहें। जीवन की सबसे तिरस्कृत और दुखद घटनाओं को झेलकर, अमृत की खोज में मिले विष को पीकर लोग बस इसलिए सांस ले रहे हैं कि उन्हें गति और नियति ने जिंदा रखा है। हमने यहाँ एक ज़िंदगी को देखा है जो न तो पागलपन तक में हँसती है, न तो भयंकर अवसाद के क्षणों तक में रोती है, न तो आगे बढने के लिए लोलुप है और न तो पीछे जाने की आग्रही है। ज़िंदगी कभी कभी बढ़ती घड़ी के साथ एक धमाका करती है और खुद ठहर जाती है … हम धड़कनों की आवाज सुनते हैं, घड़ी की टिक-टिक सुनते हैं और चढ़ते-उतरते सूरज और चमकते-बुझते चाँद को देखकर ये संतोष करते हैं कि किन्ही आयामों में ज़िंदगी चल रही होगी…शायद!
परछाइयों के पीछे : पड़ाव
ये उपन्यास का तीसरा भाग लंबे अंतराल के बाद आया। कहानी प्रौढ़ हो गयी है, कई तरह के पड़ाव आए और गुजर गए, कहानी आगे बढ़ती रही। लेकिन भावी संभावनाओं को संजोय, पृष्ठभूमि को धीरे-धीरे विस्तारित करते हुए ये भाग एक तैयारी पर खत्म होता है। कइयों ने कई यात्राओं की शुरुआत की है। सब समस्याओं को झेलते हुए, शुभो और आशंकाओं से जूझते हुए वो अभी भी खुद को बनाए रखे हैं। कहानी अपने अगले आयाम के लिए अब तैयार है।
परछाईयों के पीछे : पूर्वसंध्या
कहानी भी जीवों की तरह जन्म लेती है, बचपन और लड़कपन से गुजरती है, जवान होती है, फिर प्रौढ़ हो जाती है और फिर एक समय खत्म हो जाती है। यही कहानी का जीवन-चक्र होता है, लाईफ साईकिल होती है। रोलर-कोस्टर वाली कहानियाँ अप्राकृतिक होती हैं, इनके लिए चुट्कुले बनते हैं जैसे कि एक बुड्ढा बचपन में ही मर गया। तो लीजिये कहानी का प्रौढ़ रूप सामने है, अगला भाग अंतिम भाग होगा इसलिए सभी पात्र जल्दी-जल्दी अपनी नियति भोगने में लगे हैं। धीरे-धीरे सारी प्रेमकहानियाँ अंगड़ाई लेकर उठ बैठी हैं। अब इस कहानी को चरम देने की शक्ति मैं ईश्वर से माँगता हूँ और आप इस कहानी को पढ़कर कहानी के अंत के लिए खुद को तैयार कीजिये।
कलंक का देवता (कलंकित देवता)
ये उपन्यास मेरा पहला सम्पूर्ण उपन्यास है। इसका हार्ड-कवर वर्जन ‘कलंकित देवता’ के नाम से निकला है और धड़ल्ले से इसकी ई-बुक सेल्स हुई है। ये उपन्यास बस एक छोटी सी सच्चाई को लेकर लिखा गया है कि किसी भी खूबसूरत से खूबसूरत चीज को बुरे से बुरे रूप में हम देख सकते हैं और ठीक इसके उलट किसी भी बुरी से बुरी चीज को भी हम अच्छे के रूप में देख सकते हैं। ये अंतर्द्वंद की कहानी है! एक देवता और एक राक्षस के बीच लगातार कुछ भावनाओं / संभावनाओं की तलवार से युद्ध चल रहा है और अंत तक खत्म नहीं होता बस हम पलड़े के खेल देखते रह जाते हैं। हम सभी ने अपने संसार में ये द्वंद देखे हैं और इनसे गुजरते हुए हमारी पेशानी पर पसीना आया है। हम आम तौर पर ही बोल देते हैं कि, ‘नहीं! आपने बिलकुल गलत तौर पर ले ली मेरी बात…’ बस इतनी सी बात पर ये उपन्यास किस्से कहकर जब शांत होता है तब आप खुद से ये पुछने के लिए मजबूर होते हैं कि देवता और दानव क्या एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं! आप सोचकर खुद को बताते हैं कि शून्य में बेलाग लटकी धरती पर उल्टे लटके हुए ये बताना कठिन है कि सीधा कितना सीधा और उल्टा कितना उल्टा है या कि वास्तव में कौन सीधा और कौन उल्टा है! ये पहेलियाँ आगे मैं आपके लिए छोडता हूँ।
चाय तुम्हारे साथ : प्रारम्भ
एक बिहारी लव-स्टोरी जो कौलेज के परिसर में जवान होती है और फिर एका-एक एक लंबे वनवास पर चली जाती है। एक प्रेम-त्रिकोण बनता है फिर बिगड़ता जाता है और फिर बिलकुल से गुम जाता है। अपने जीवन के बाहरी माहौल से जूझ रहे और अपनी समझ गढ़ रहे लड़के-लड़कियों को सारी चीजें सीखने मिलती है जो किताबों में लिखी हैं, जिन्हें प्रथम-दृश्टया उन्होने भी सही माना। अपने-अपने जीवन के लक्ष्य निर्धारित किए गए, अपनी रुचि-अरुचि को पहचानकर, सही-गलत के मानदंडों को ध्यान में रखकर जीवन की यात्रा शुरू हुई थी। बिहार, बिहार होने के तात्कालिक मतलब और बिहार के तात्कालिक वातावरण को देखकर बड़े ही ध्यान से लिखे गए इन घटनाक्रम में हमने पाया कि एक ज़िंदगी को भली-भांति जीकर, अगली दुनिया के लिए, वो दुनिया जो उन्हें शौक से मिली है वो पन्नों का ये महासागर पार करते हैं।
चाय तुम्हारे साथ : इति
चाय तुम्हारे साथ सीरीज का ये दूसरा भाग भी बिना देर किए बाजार में आ गया। ये उस कहानी का चरम था जो पिछले भाग में अंगड़ाई लेकर उठ खड़ी हुई थी। इस भाग में मैंने ये दिखाना चाहा है कि सीखना ज़िंदगी का एक अनिवार्य भाग है, ये सीख जब तक हमें कागज़, कलमों से मिलती है तब तक ज़िंदगी बहुत आसान है पर एक उम्र के बाद ये सारी सीखें हमें वास्तविकता के धरातल पर मिलती हैं और तब हमें पता चलता है कि एक सीख अपने साथ कितनी तकलीफ लाती है। बहरहाल अपने सारे उपलब्धियों को कोई हासिल नहीं कर सका है पर एक मुकाम पाने के बाद कुछ जिंदगियाँ पाती हैं कि वो उठने की जगह गिर गयी हैं! वो कसमसाती हैं और बहुत बड़ी कीमतें देकर बिलकुल नीरव माहौल में वापस आती हैं। राख में दबी आग की तरह उनकी ज़िंदगी दुनिया और यहाँ तक कि खुद की भी नजरों से बचाकर सुलगती रहती है कि हवा का एक झोंका आता है और फिर हम एक मुसाफिर को एक लंबे प्रवास के बाद और कुछ भावनाओं को लंबे वनवास के बाद लौटता पाते हैं। कहानी एक सुकून के साथ खत्म करते हुए मुझे लगा कि इन्हीं रास्तों से होकर कभी मैं भी वापस आ सकूँ, जी! मुझे वो सवेरा दिख रहा है!
विदागरी (विदाई)
अचानक ही एक कहानी एक उपन्यास बन गयी थी, क्योंकि उसे कहानी कहकर मैं स्क्रीन-शॉट नहीं बनाना चाहता था। ये युगों के बीच सेतु की तरह पसरी कहानी पढ़कर आपको आंचलिकता की खुशबू आएगी! ये कहानी आत्मा से आंचलिक नहीं है भले ही इसका शरीर बिहार की मिट्टी में गढ़ा गया हो पर ये हर भारतीय घर में जी गयी है और जी जाएगी। विदागरी का शाब्दिक अर्थ विदाई है, विवाहोपरांत लड़की की विदाई! विदाई केवल एक रस्म नहीं है, ये एक होनी है! ये होनी, दो लोंको के बीच द्वार सी बैठी है। एक तरफ की दुनिया, दूसरे तरफ की दुनिया से बिलकुल अलग है और इसको इसके रूप में स्वीकार करना आदिम समाज हो या सभ्य समाज, सबका शौक और जरूरत से स्वीकारा गया कदम है। ये कदम आज तक परिपक्वता और अपरिपक्वता की सीमा पर खड़ी हर लड़की के लिए युगांतकारी होता है। एक ऐसी ही ज़िंदगी को मैंने कलमबद्ध किया है और उसके उम्र की घटनाक्रम को बड़ी ईमानदारी से प्रस्तुत किया है! ये कोई सामाजिक समस्या का गाना नहीं गा रहा सिर्फ दो आँखों से दिख रहे नजारे को बताता हुआ उनके असर को दिमाग की नसों में खोजता है।
पापा पिगीबैंक पैतृक: संचयीमान
ये दस्तावेज़ मध्यम वर्ग की तीन पीढ़ियों की कहानी है, जो जाने-अंजाने हर नए बनते घर में, हर बंटते खेत में लिखी जा रही है। इसे हम हर निर्जन होते गाँव में, घने होते शहर में पा सकते हैं। ये वो साँचा है जिसमें भारत की नयी पीढ़ी, समाज रूपी रेल के इंजन बने हैं। इस भाग में सबकुछ संचयीमान रहा और सारे आदर्श, सारी प्रेरणा, सारी समझ विकसित हुई है।
पापा पिगीबैंक पैतृक: संचित
मध्यम वर्ग की ज़िंदगी का ये दस्तावेज़, दूसरे भाग में और जटिलताओं को प्राप्त करता है। हमें एक सीख मिलती है कि ज़िंदगी न किसी एक उपलब्धि पर खत्म हो जाती है और न तो कोई ऐसा चाहता ही है, आयु एक सतत संघर्ष है और आदमी यत्न से इसे जीता है। घट भर चुका है और कथा परिपक्व हो चुकी है, इसका चरम अब बड़ी ही आसानी से खुद को व्यक्त कर सकता है।
पापा पिगीबैंक पैतृक: शून्य
प्रथम भाग संचयीमान और दूसरे भाग संचित के बाद ये तीसरा भाग शून्य है। पापा पिगीबैंक पैतृक सिर्फ साहित्य की नहीं ये इतिहास की एक पुस्तक है जो आपको साक्षात दिखाएगी कि इतिहास कैसे गोल घूमता है और कहते भी हैं कि दुनिया गोल है! जहां से चलते हैं हम, फिर वहीं पहुँचना होता है । साथ ही एक सीख भी मिलती है कि छोटी-बड़ी विरासतें, न संभाल पाने के कारण कैसे मिट्टी में मिल जाया करती हैं! मध्यम वर्ग की सीधी-सादी ज़िंदगी में कैसे जाल छिपे होते हैं, कितना पेचीदापन और कितनी उलझन हैं इनमें ये इस पुस्तक को पढ़ने के बाद साफ देख पाएंगे आप। असल में न आप अपने मूल्य और नैतिकता को खो ही सकते हैं और न तो आपके पास इतने पैसे होते हैं कि आप उन्हें भूला ही सकते हैं! इसी कश्मकश में पड़े-पड़े ज़िंदगी चलती है। लोग हासिल भी करते हैं और कुछ न कुछ खोते भी जाते हैं! लोग चोट खाते हैं, कराहते हैं फिर खड़े होते हैं, जीने और जीतने लायक उड़ान भर पाते हैं। ये पाने और खोने का हिसाब जो तौल रहा है वो समय होता है। समय से बड़ा न उनका न्यायकर्ता कोई है और न तो साथी, कहें कि न तो दुश्मन ही!
घर का छूटना, घर का बनना फिर अंत तक वही उद्विग्नता। मोह का ऐसा अमोघ जाल कि कोई न तो जीते जी निकल पता है और न तो गुजरने के बाद ही जा पाता है। ये कहानी एक कसमसाहट के साथ खत्म होती है पर पूरी तरह अपने पात्रों के साथ न्याय करती है। ये एक इंसान, एक परिवार, एक वर्ग की कहानी है जो आज भी गाँव छोडकर निकल रहे हैं, छोटे शहर छोडकर बड़े शहर जा रहे हैं…देश को छोडकर विदेश जा रहे हैं।
पाँचवीं रिंग
ये लघु-उपन्यास सिर्फ ई-बुक के रूप में उपलब्ध है जिसे मैंने प्रयोग के तौर पर पोथी डॉट कॉम पर प्रकाशित किया था। इसके बाद इसे किंडल और गूगल पर भी डाला गया। ये कहानी एक गलत-फहमी को लेकर शुरू होती है और बस यूं खत्म हो जाती है कि मानो भ्रम कब सच्चाई में बदला, इसका मालूम ही नहीं चला एक इंसान को।
पश्चात मेरे हाथ
मेरा पहला प्रकाशित कविता-संग्रह पेपर-बॅक और ईबुक के रूप में भी, यही पश्चात मेरे हाथ बना। लेखन में काफी आगे बढ़ने के बाद मैंने अपनी नजर में उपेक्षित अपनी इस योग्यता और साहित्य की इस विधा को बाहर निकाला। मुझे आज भी अपनी कही वो लाईन्स याद हैं, जो प्रकाशक ने चुप-चाप सुनी थी। कविताओं से मुझे कोई आशा नहीं है पर इन्हें सौतेला व्यवहार नहीं मिलना चाहिए। मेरी कविताओं के संग्रह, कतरा-कतरा आसक्ति के बाद ही वास्तविक संग्रह माने जाने चाहिए वरना हुआ यही था कि मैंने अपनी लिखी अनगिनत कविताओं को बस बाँट दिया था और इनके सबसे सुलभ लक्ष्यर्थों पर इनके संग्रह बना दिये। ये एक साथ जन्म लेने वाले संग्रह में पहला संग्रह, एक तूफान के गुजर जाने के बाद उजड़े शहर का जायजा लेते हुए लिखी गयी थी।
तेरी ही तस्वीर
ये पेपर-बॅक के रूप में प्रकाशित काव्य-संग्रहों में दूसरा था, अपनी कोमल कविताओं के कारण ये काफी प्रचलित रहा है और तेरी ही तस्वीर में भावनाओं की तरलता दर्शनीय है। ई-बुक संस्करण काफी लोकप्रिय रहा है, जैसा कि मुझे कविताओं से ज्यादा आशा नहीं थी पर ये गलत साबित हुआ। यहाँ संग्रहीत कवितायें पुरानी से भी पुरानी भी मिल जाएंगी मतलब लेखक के लिहाज से उसके आदिम युग की। इसलिए कई बिलकुल सरल मनोभाव की, बिलकुल सीधी-सादी रचनाएँ इसमें भरी हैं। इन कविताओं को पढ़ना मानो किसी म्यूज़ियम को देखना है जहां योद्धाओं के कपड़े हैं, कवच है, अस्त्र-शस्त्र हैं। पुरानी चीजें तसल्ली देती हैं। जब कभी अपने रास्ते भूलता हूँ तो अपने इन्हीं चारों कविता संग्रहों को पढ़ता हूँ।
साथी
पता नहीं इस कविता संग्रह के नाम में, या स्वरूप में ऐसा क्या था जो कि ये पुस्तक बड़ी भयंकरता से डाउन-लोड हुई है किंडल पर। इसका पेपर-बॅक संस्करण उपलब्ध है। पूरे कोरोना काल में जब कि लोगों को सांस लेने का एक दुर्भाग्यपूर्ण मौका मिला तब मैंने इस पुस्तक के जलवे देखे हैं। व्यक्तिगत अवसाद तो हर जगह रहेगा ही पर इसके साथ बाहर के माहौल की समझ और अपनी दृष्टि को मैं खुलता पा रहा हूँ इन्हीं चार संग्रहों के दौरान। ये तीसरा संग्रह कई मुलायम और कई बेहद सख्त रूप दिखाता है। साथी शीर्षक कविता बस एक कविता नहीं, एक युग की सच्चाई बन जाती है।
किस पार
ये पेपर-बॅक के साथ ईबुक के रूप में प्रकाशित चार कविता संग्रहों की शृंखला में चौथा चेहरा है। खुद शीर्षक कविता, किस पार! चार पंक्तियों की एक योजनों तक फैले मरुस्थल की कहानी रही है। बाँकी संग्रहों की तरह इसमें भी नयी, पुरानी कवितायें भरी पड़ी हैं। एक सिंहावलोकन करिए तो पाएंगे कि कई कवितायें इसमें बाहर की तरफ नजर करके लिखी गयी हैं। मैं भी अनुभव कर रहा हूँ कि व्यक्ति की पीड़ा धीरे-धीरे बदल रही है क्योंकि व्यक्ति को समझ आने लगा है कि व्यक्ति सिर्फ दिल और दिली भावनाओं का पुतला नहीं होता। लेकिन फिर भी कुछ बेहद करुण कवितायें इसमें भी संकलित हैं। इसके साथ ही मैंने ताज़ी रचनाओं में डील करना शुरू कर दिया था।
कतरा-कतरा आसक्ति
ये मेरा पाँचवाँ कविता संग्रह है जिसमें कवितायें लिखने के साथ ही मैंने उसे ऑनलाईन विभिन्न मंचों पर डालना शुरू कर दिया था। ये कवितायें चार साल पहले, पुस्तक आने तक लिखी और ऑनलाईन प्रकाशित की गयी हैं। इस वक़्त मैंने yourquote और फेसबुक जैसे मंच पर सीधे अपने मटेरियल डालने शुरू किए और बहुत समय बाद लौटकर इंटरनेट की दुनिया में आया था।
आषाढ़ की दुपहरी
एक ऐसा शीर्षक मैंने चुना था जिसके बारे में हमारे प्रकाशक ने सीधे पूछा, ‘आषाढ़ क्या होता है?’ और मैंने फिर निराश होकर इस संग्रह की कविताओं को देखा मानो किसी बॉलीवुड गाने को लीरिक्स तोड़कर कोई गुनगुनाता हो, शायद कोई कवितायें पढे! लेकिन इस संग्रह में मैंने एक प्रयोग किया था, जो वक्तव्यों के रूप में था। समय ने मुझे भी ये भान कराया था कि आज जबकि बेसुर-ताल की ज़िंदगी है, तो कवितायें करना असंभव हो जाएगा या वो भी तंत्र-साधना सी कोई बात हो जाएगी। इसलिए कविता का एक रूप जो सबसे आसान है, वो है काव्यात्मक वक्तव्य। धूमिल जी के शब्दों में, कविता पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है! लेकिन मैंने इन सार्थक वक्तव्यों के साथ स्टेपनी के वक्तव्य भी लगा दिये हैं। मैंने प्रस्तावना में लिखा है कि ये कविता पर लिखी कविता है। विस्तृत होते जाते कवित्व के धरातल और कठिन होते जाते कवि-कर्म के साथ ये संग्रह अपने आप को प्रतिष्ठित करता है। इसका पेपर-बॅक वर्जन और ई-बुक वर्जन दोनों आपको ऑनलाईन मिलेंगे।
इश्क़ @ शमशान
रेंकिंग के लिहाज से किंडल पर ताबड़-तोड़ ऊँचाइयाँ छूने वाला ये मेरा सातवाँ कविता संग्रह अभी सिर्फ ई-बुक के रूप में उपलब्ध है। मेरी लिखी सबसे नवीन कविताओं का संग्रह जो संप्रति आपको प्रतिलिपि, yourquote, फेसबुक और ट्विटर आदि पर बिखरा मिलेगा वो सब यहाँ एकत्र है। मुझे पता है कि मेरी अब तक की लिखी सबसे बेहतरीन कवितायें इसमें गूँथी हुई हैं। हर कवि कभी न कभी शौक से या आदतन या मजबूरन अपने कमरे से निकलकर बाहरी दुनिया देखता है और उसपर चिंतित होता है। उसके पास अनुभूतियाँ है, उसके पास समाधान हैं भले उसके पास पद्धतियाँ न हों पर उसके पास दृष्टि है।
नीली नसें और सौदामिनी
ज़िंदगी और मौत के बीच एक दोस्ताना द्वंद को देखते हुए ये कवितायें संकलित हों रही थी। आज जब इसे पढ़ रहा हूँ तो ऐसा लग रहा है कि इन हाथियों सी वजनी अनुभूतियों को उठाने में कितनी कैलोरी घटी होगी। सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर बिखरी मेरी कवितायें एक जिल्द के रूप में एक बदली हुई दुनिया और माहौल में सांस लेती रही हैं। अब तक मेरी लिखी सबसे तीक्ष्ण जीवननुभूतियों का संग्रह आपको आंदोलित करेगा।
इंतज़ार तुम्हारा
ये मेरा नौ नंबर कविता संग्रह है जो जबर्दस्त संघर्षों के दौर में लिखा और संकलित किया गया है। जीवन के कुछ दौरों में मुझे लगा कि अब सब खत्म हो गया, ऐसा ही एक दौर जारी है। दौर के साथ ये विश्वास भी बना हुआ है कि भगवान इतनी आसानी से मेरी कहानी खत्म नहीं करेंगे और यही विश्वास मुझे एक जानी-पहचानी प्रेरणा के सहारेअगले दौर के इंतज़ार के लिए प्रेरित कर रहा है।
अब लौट आओ पूजा :नवीनतम: वापसी अपने संसार में
हर लेखक अपने जीवन काल में कुछ न कुछ ऐसा जरूर लिखता है जो उसके लिए एक अनबीता लेकिन व्यतीत क्षण होते हैं! इसी तरह ये कहानी मेरी ज़िंदगी का अनबीता व्यतीत है! ये न गुजर कर भी गुजर चुका है, न घटकर भी घट चुका है! ये ज़िंदगी के वो पल हैं, जिनहोने आज के हर्ष रंजन को गढ़ा है, आज के इस लेखक की कलम को कागज और स्याही दी हैये कहानी आम है! आपने भी कहीं देखी-सुनी होगी! आज के युग में बहुत प्रांसंगिक है ये कथा और विशेष करके नयी पीढ़ी के लिए जो शौक, शरीर, संवेदना और संबंध के दायरे में अपनी समझ लिए जूझ रहे हैं! आप सब नयी पीढ़ी के दोस्तों को मैंने इस कथा को समर्पित किया हैमैं एक सनातनी और भारतीय नागरिक होने के नाते कभी नहीं चाहूँगा कि ये कहानी किसी भी ज़िंदगी में, किसी भी गली में, किसी भी शहर में दुहराई जाये। कितनी ही जिंदगियाँ भेंट चढ़ चुकी हैं इस यज्ञ की। अब सिर्फ इस दृष्टांत को पढ़ें और इसकी बारीकी समझें। अपनी तईस्वी किताब लोकार्पित कर रहा हूँ! प्रोत्साहन बनाए रखिए मुझपर और उन सारी पूजाओं पर जो पराई दुनिया से अपने संसार में लौटने के लिए कष्ट झेल रही हैं और अपने संसार में अपने घरौदे के सपने सँजो रही हैं।
तुम नास्तिक क्यों रहे भगत सिंह!
इस युग में आज सबसे जरूरी है तो जानकारी! फिर उसका विश्लेषण। फिर उसकी स्वीकार्यता। अमर बलिदानी भगत सिंह पर इधर बहुत चर्चा हुई है और जब भी किसी महापुरुष पर चर्चा होती है तो कुछ लोग समय के घोड़े की लीद जमा करने आ जाते हैं। भगत सिंह ने अपनी एक कृति में अपने भावावेग को बिना रोके जो सब कहा आज उसी नास्तिकता की चर्चा करने का समय है। कुछ वामपंथियों को मौका मिला और उन्होने इस बात का भरपूर दोहन किया, कुछ सनातन विरोधी तत्व भी बहती गंगा में हाथ धोने चले आए। लेकिन अमर बलिदानी ने आखिर कहा क्या था? सवाल क्या खड़े किए थे? इसपर चर्चा करना जरूरी है कि नवयुवकों और नवयुवतियों की नयी पौध को कोई गलत आदमी को अपनी दुर्भावना से न सींच पाये आज। इस के बीच मैंने भगत सिंह जी के उठाए प्रश्नों पर विचार किया और ये पुस्तक ‘तुम नास्तिक क्यों रहे भगत सिंह’ लिखी है। ये मेरी चौबीसवीं पुस्तक, पुस्तक के रूप में पहली रचना है जो एक वैचारिक निबंध है। कहानी, कविताओं और उपन्यासों के अलावा मैंने इस विधा पर बहुत काम किया था पर अब उन सबको खोदकर निकालने का कोई अर्थ नहीं है, धीरे-धीरे फिर इस विधा की ओर मुड़ रहा हूँ और आशा करता हूँ कि इस विचारोत्तेजक निबंध को आपलोग सराहेंगे!
Bhagat Singh, You are an atheist!
तुम नास्तिक क्यों रहे भगत सिंह का ये अङ्ग्रेज़ी अनुवाद है।
सरस्वती-पुत्र
ये मेरा दसवां कविता-संग्रह है। पिछले संग्रह के आए हुए एक साल से ज्यादा समय हो चुका था। अब थोड़ी वृति भी बदल गयी, सो ऑनलाईन प्लेटफार्म्स पर लिखना भी कम कर दिया है नतीजतन ये कवितायें आपको ज़्यादातर तो पहली बार देखने को मिलेंगी।
रात आपके शहर में
‘ज़िंदगी जीरो माईल’ की बहुचर्चित कहानी ‘शहर रात और आज की बारात’ जो तस्वीर पेश करती है, ये उपन्यास उसी तस्वीर के आगे-पीछे और अगल-बगल की कहानी है। ये कहे गए एक शब्द के साथ कहा गया उस शब्द का पूरा वाक्य है। क्या चलता है एक समाज के भीतर, क्या चलता है एक दिमाग के भीतर, ये कहानी आपको उन सच्चइयों से अवगत कराएगी जो पुरानी हो चुकी, इतनी पुरानी हो चुकी कि उसपर झूठ के पोस्टर चिपकाए जाने लगे थे। ये फिर से एक बार आपको आपकी ही सीख याद दिलाएगी।
तीसरी दुनिया के चर्चे ‘दो ख्वाब’
‘तीसरी दुनिया के चर्चे’ नाम से मैंने एक निबंध संग्रह आपके समक्ष उतारा है, जिसका भाग एक, ‘दो ख्वाब’ आप अभी ऑनलाईन साईट्स पर पा रहे हैं। तीसरी दुनिया के लोगों के पास ऐसा तो नहीं कि सिर्फ ख्वाब होंगे, अधिकार भी होंगे, पद्धतियाँ भी होंगी, आदर्श भी होंगे… सब पर लिखा जाएगा एक-एक करके। जबकि दो ख्वाब के अंतर्गत मैंने समानता और स्वतन्त्रता पर बात की है। ये बहुचर्चित विषय आज सबसे बड़ा जाल बन गए हैं सभ्यता के लिए। आप ये निबंध पढ़िये और समझिए कि जब हम स्वतन्त्रता या समानता कहते हैं, तो लोगों को क्या समझ में आना चाहिए।
स्वर्ग की सीढ़ी
ये तैतीस्वी पुस्तक मैंने लिखी है जो स्वर्ग और नर्क पर बात करती है। बहुत हो गयी बहस कि स्वर्ग क्या है, नर्क क्या है? मैंने इसी पर चर्चा की है यहाँ! इनकी जरूरत क्यों हुई, ये कहाँ से कल्पित हुए, क्या इनका समीकरण है! सब कुछ दिल से मैंने कागज पर उतार दिया है। ये एक सम्पूर्ण निबंध है। धर्म के कई विषयों, कर्म सिद्धान्त और कर्म सिद्धान्त के हासिल, स्वर्ग और नर्क, पुनर्जन्म और पूर्वजनम पर व्यापक चर्चा हुई है यहाँ।
डार्क लिपस्टिक शेड्स ‘डार्क”डार्कर’
ये उपन्यास एक साधारण परिवार की लड़की के जीवन को बारीक नजर से देखते हुए लिखा गया है। कई बार हम सब कुछ समेटने के लिए आगे बढ़ते हैं और हमें पता चलता है कि हजारों खवाहिशें पाले हमारे मन के लिए हमारे पास हाथ केवल दो हैं। कुछ इसी भाव की ये कहानी है। ज़िंदगी में जगह कितनी है और ज़िंदगी से आशा कितनी है, ये बात तौलते हुए ये कहानी आगे बढ़ती है। जीवन को उन अर्थों मे जीने की कोशिश की जाती है, जो वास्तव मे छलावा है।
डार्क लिपस्टिक शेड्स ‘डार्कर’
ये इस उपन्यास का दूसरा और आखिरी भाग है। जैसा कि पहले कह चुका हूँ कि ये उपन्यास एक साधारण परिवार की लड़की के जीवन को बारीक नजर से देखते हुए लिखा गया है। कभी-कभी हम खुद को खर्च कर देते हैं। ऐसा कुछ अनुभव वो लड़की भी करती है। निश्चित को छोडकर अनिश्चित के पीछे भागना कुछ ऐसा ही होता है। सब कुछ पाकर सब कुछ गंवा देना और फिर सब कुछ पाने की दौड़ करते हुए अक्सर ऐसी दुर्घटना हो जाया करती है। कुछ इसी भाव की ये कहानी है। फिर से मैं कहना चाहूँगा कि ज़िंदगी में जगह कितनी है और ज़िंदगी से आशा कितनी है, ये बात तौलते हुए इसका हिसाब मायने रखता है। हम सब कुछ जी लेंगे तो फिर जीने के लिए कुछ नहीं बचेगा