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Parchhaiyon Ke Peechhe: Vistaar

Parchhaiyon Ke Peechhe: Vistaar

  • ISBN 978-8193913406
  • टाईटल : परछाईयों के पीछे : विस्तार
  • Title : Parchhaiyon Ke Peechhe: Vistaar
  • Author : Harsh Ranjan
  • Publisher ‏ : ‎ Author’s Ink Publications (8 March 2019)
  • Language ‏ : ‎ Hindi
  • Print length ‏ : ‎ 250+ pages
  • Novel Series : 1st Part
  • Versions : E-Book and Paperback
  • Fiction
Category:

Description

‘परछाईयों के पीछे : विस्तार’ से उद्धृत

इधर हॉस्पिटल से निकलकर गुंजन वापस फ्लैट में आयी। बिल्कुल चुप हैं कमरे, सिर्फ गुंजन की सिसकियों की आवाज गूंजती रही। उसने नजर उठाकर देखा सामने में रवि का स्वेटर था। वो उठी और उसे बाहों में भरकर बिस्तर पर आ बैठी। ये वही बिस्तर था जिसपर बेसुध होकर कल रवि औंधे मुँह पड़ा था। गुंजन उस याद से कांप उठी। उसे लगा कि सब बिखर गया। तिनका-तिनका जोड़ने की कोशिश कर रहे थे दोनों फिर एक एक्सीडेंट, कुछ महत्वकांक्षाए और फिर ये भटकाव! क्या रवि सच कहता था कि वो उसके लायक नहीं था, जो गुंजन उसे बनाना चाह रही थी! रफ्तार से रफ्तार मिलाने के नाम पर उसने रवि को जमीन पर घसीटना तब तक जारी रखा जब तक उसके घाव खून ना उगलने लगे।
क्या ये उसी खून का रंग है, उसके हाथों में उसके आँचल पर, उसके आँखों में, उसके होठों पर, उसके माथे पर, ….. उसका ये श्रृंगार भी रवि को नहीं रोक पाया। धिक्कार है उसके प्यार को कि वो ये नहीं समझ पायी कि रवि के दिमाग में तब क्या चल रहा था और वो उसे उसके विचारों की काल-कोठरी में यंत्रणाओं के बीच अकेला छोड़ कर निकल गयी।
इन विचारों में उलझे-उलझे वो रोती हुई फर्श पर बैठ गई। वो लगातार रोती रही और इसी बीच उसकी आँख लग गई।
…….रवि कमरे से बाहर निकला और गुंजन को लांघते हुए दरवाजे की तरफ जाने लगा।
गुंजन की आँखें खुली-रवि! रुक जाओ रवि!
रवि रुक गया। वो पीछे मुड़ा। वो मुस्कुरा रहा था। गुंजन उसकी तरफ झपटी …..
गुंजन की आँखें खुल गयी। वो खड़ी हुई और वाश वेसिन के आगे आयी। उसने आइना देखा। रोते – रोते आँखें फूल गयी थी, बिन्दी बिखर गयी थी,बाल बिखर गये थे ….. बाहर निकलने के लायक होने के लिये वो तैयार हुयी और मुठ्ठी में चिठ्ठी दबाये पर्स लेकर वो बाहर आयी। उसने दरवाजे पर ताला मारा।
मोबाइल पर गुलशन ने कॉल की। पूरी रिंग हुई पर गुंजन ने फोन नहीं उठाया।
गुंजन बाहर निकल कर एक बार पीछे मुड़ी, पलकों पर आँसू थे और होठों पर मौन। ये सामने जो दरवाजा बंद दिख रहा है, उसकी दो चाबियां हैं, एक गुंजन के पास और दूसरी रवि के पास। वो सारी ताकत समेटकर आगे बढ़ी। उसे पता है कि जब तक ये घर है तब तक वो डोर से कटी पतंग नहीं कहेगी खुद को। उसके आंचल से ढुलककर सांझ ढल गयी थी और वो धीमे फिर दृढ़तर होते तेज कदमों से आगे बढ़ गयी।

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