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हिंदी दिवस और मेरी साइट का लोकार्पण

ॐ नमः शिवाय।

हिंदी दिवस मुझे वर्तमान परिपेक्ष्य में हमेशा अधूरा लगा है। ये दिन मुझे भान कराता है कि कैसे कलियुग में हर अच्छाई, बुराई या कि चुनौती बनती गयी। जो भारतवर्ष की अच्छाई थी, विशेषता थी, सुंदरता थी, ताक़त थी, वो हर चीज ‘बाहरी’ मानसिकता वालों या उनसे प्रेरित लोगों ने बुरी देखी या हमें दिखाई और फिर उनकी बनाई व्यवस्थाओं ने उनकी समझ से उपजा कोई तथाकथित समाधान हमपर थोप डाला। ऐसे कई उदाहरण हैं। मैं पहले भी लिख चुका हूँ कि राजनैतिक व्यवस्थाओं से पूरी निराशा और नफरत के बाद भी भारत के लोग नाली साफ करने से लेकर राकेट बनाने में भी सरकार और तंत्र या कहें तो राजनैतिक व्यवस्था की सहायता चाहते हैं। एक तो करेला, दूजा नीम चढ़ा। पहले तो परमुखपेक्षिता और ऊपर से गत राजनैतिक चरित्र वालों का राजनैतिक दर्शन और उनकी श्रापित संस्कृति। जो काम समाज को करने थे, अपने तरीके से करने से और अपनी अद्धभुत कौशल से करने थे उन कामों का बंटाधार हो गया। दिल का इलाज दांत के डॉक्टर से करवाना नहीं था। समाज किसी भी समस्या का हल अलग उपकरणों से करता है, राजनीति और प्रशासन के उपकरण बिल्कुल अलग होते हैं। हम माँ-पिता से प्यार करते हैं कि ये स्वाभाविकता है संबंध की, प्रकृति है इंसान की पर माँ-पिता से प्यार करने का कानून नहीं बनाया जा सकता, अगर कोशिश करेंगे तो बात जमीन-जायदाद पर ही घूमती रह जायेगी। ऐसी ही गत हर उस विषय की हुई है जिसे बाहरी पालन-पोषण और संस्कार-विचार वाले लोगों ने हाथ मे लिया, लिहाज़ा शौक से चौपट किया। भाषा का दिवस क्या है? भाषा का तो हर क्षण है। नींद में हम सपनों में भी एक भाषा मे ही बात करते हैं। दिवस के तौर पर मुझे लगता है कि हमने एक कुर्सी हिंदी को दे दी, जिसपर बैठकर वो खुली आवाज में ये भी नहीं कह सकती कि वो विशिष्ट है। दरअसल हमने विद्या की देवी के वरदान को भारत की एकता के लिए श्राप बना दिया। भारत एक ऐसा देश है जिसका वाक-कौशल और लेखन-दक्षता एक तरफ और बांकी दुनिया की दूसरी तरफ। लेकिन उसी देश मे सारे दिनचर्या के काम, नाम, इनाम और प्रणाम एक विदेशी भाषा को मिलते रहे और भारतीय वांग्मय अपना-अपना गोला खींचकर अपनी जगह खड़ा रहा। जो पूरक थे, जो सहधर्मी थे वो आमने-सामने खड़े हो गए और बंदर रोटी का बंटवारा करता रहा। दिवस मनाकर ही हमने कौन सा उपकार कर दिया हिंदी पर, आज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में हिंदी जिंदा नहीं रही। नेताओं की खासियत होती है वो करते कम हैं, दिखाते ज्यादा हैं। बस यहां भी वही हुआ। खैर हम संतोषी इंसान हैं। गलत बीमारी की गलत दवा का गलत डोज खाकर भी हम स्वस्थ हो रहे हैं तो खुशी की बात है।

जो लोग कहते हैं कि हिंदी में नया ज्ञान नहीं है उनको लगता है कि एमबीए और एमटेक की किताबें हिंदी में लिखी नहीं जा सकती। ऐसे लोगों को लगातार चीन, रूस, जापान का उदाहरण दिया जाता है। मैं उन्हें एक नाम बताता हूँ।आचार्य रघुवीर भाषाविद, प्रख्यात विद्वान्‌, राजनीतिक नेता तथा भारतीय धरोहर के मनीषी थे, इन्हें थोड़ा सर्च कीजियेगा।

अगर इच्छाशक्ति हो तो कुछ भी किया जा सकता है बशर्ते नेताओं से मदद मत लीजिये। भारत के नेताओं ने राजनीति का सही मतलब जाना है, राज हासिल करने के मार्ग में जो करना पड़े, सब राजनीति है।

सामाजिक समस्याओं के लिए समाज-नीति रहने दीजिए। समाज जीतने की होड़ नहीं करता और न तो शोषण न तो समर्पण का आग्रही है। ये समरसता से ही बना रहा है। अब क्या करें कि इतिहास के भी अपने अपने वर्जन आने शुरू हो गए, कोई संघ का, कोई कांग्रेस का, कोई वामपंथी वर्जन, कोई दलित, कोई फेमिनिस्ट वर्जन। इसके पीछे भी मूल समस्या वही है…मतलब शिक्षा भी तो राजनेताओं के हाथ ही रही, सो कइयों ने दाएं हाथ से नेता के भाषण लिखे और बाएं हाथ से इतिहास, साहित्य वगैरह।

मैं फिर भी विश्वासी हूँ कि कष्ट सह रहा जीव, कोई न कोई उपचार खोज लेगा। समाज समझेगा कि भारतवर्ष के अवयवों को कैसे नए युग में उतारना है। राजनीति के उपकरणों पर भरोसा मत कीजिये। एक भारतीय समाज के प्राणी रूप मे मैं दावा करता हूँ कि जिस दिन दक्षिण की राजनैतिक पार्टियां उत्तर और उत्तर की राजनैतिक पार्टियां दक्षिण तक फैल जाएंगी उसी दिन भारत भाषाई लिहाज़ से विश्व-गुरु का अपना ताज, जो उसने कुंठा में बगल रख दिया है, वो वापस अपने सर पर सजाकर मुस्कुराएगा। उस दिन की प्रतीक्षा में हम आज से ही हिंदी दिवस को भारतीय भाषाओं के पर्व के रूप में मनाना शुरू कर दें।

सादर

हर्ष रंजन

श्री हरि।

 

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